<p>&nbsp;20. असली हीरे की अंगूठी&nbsp;</p>
August 20, 2025

 20. असली हीरे की अंगूठी 

"बस्ती

गांव के मेले में किसी

पनवाड़ी की दुकान का शीशा

जिस पर इतनी धूल जम गई है कि 

अब कोई भी अक्स दिखाई नहीं देता।"

यह सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता का टुकड़ा है। 

 

इसी बस्ती जिले का एक गांव है भिउरा जिसे छोड़े मुझे 32 वर्ष हो चुके हैं। पिछले दिनों जब मैं वहां गया तो गांव के बाहर वाले बाग में दो-तीन कुत्ते दिखे। भौंकते हुए वे मेरी ओर लपके। अनुभव यह नया नहीं था पर अपने ही गांव में मेरे साथ यह वाकया पहली बार हुआ।

 

मुझे याद है कि जब पहली बार शहर आ रहा था तो सिवान तक छोड़ने अन्य लोगों के साथ गांव के कुत्ते भी आए थे। जब सारे लोग रुक गए और मैं अकेला बैग लिए चला तब भी कई कुत्ते दूर तक आए और भगाने पर मुश्किल से गांव की ओर वापस लौटे।

 

मुझे नहीं मालूम कि देश के तमाम गांवों के कुत्ते इन दिनों कटहे हो गए हैं या कि इधर हाल के वर्षों में उनकी नस्ल में कुछ तब्दीली आई है। खैर, जब से देश में नई मनमोहिनी अर्थनीति का प्रसार हुआ है, कुछ कहा नहीं जा सकता कि किसी का चारित्रिक अवमूल्यन किस दिन हो जाए या डॉलर की तरह कौन कब कितना महंगा हो जाए। 

 

पर इतना तय है कि न तो मेरे गांव के कुत्तों पर किसी वैज्ञानिक ने कोई प्रयोग किया है और न ही किसी अंतरराष्ट्रीय साजिश के तहत उन्होंने अपना व्यवहार बदल लिया है। जनरेशन गैप का भी मामला नहीं बनता क्योंकि उनकी व्यावहारिक दुनिया सीमित है और उन्होंने फिलहाल संभव है दूरदर्शन कभी-कभार देख लिए हों पर एमटीवी तो कतई नहीं।

 

हां, मेरे गांव के अधिकतर घरों में टीवी आ गया है पर पूरा गांव खाली हो गया है। वहां केवल बूढ़े रहते हैं जो ठंडी में आग तापते एक तिलिस्मी दुनिया के प्राणी नजर आते हैं। जवान होते ही बच्चे शहर भाग लेते हैं और साल छमाही एकाध बार आते हैं। जिनके लिए टीवी लगा है उनमें से अधिकतर को दिखाई नहीं देता और जिन्हें कुछ दिखाई भी देता है वे बहरे हो चुके हैं।

 

चौकस इंद्रियों वाले जो लोग बचे भी हैं वे गांव की प्रधान मिथिला देवी के यहां रात तक सामूहिक टीवी देखते हैं। महिला आरक्षण और पंचायत सुराज की अद्भुत मिसाल प्रधानिन सिर्फ अंगूठा लगाती हैं या कभी-कभार डेढ़ हाथ के घूंघट के नीचे से रास्ता टटोलती अपने पति के साथ कचहरी जाती हैं। उनके पति मुंबई स्टिर्न होने के नाते होशियार माने जाते हैं और जवानी की देहरी पर पांव रख रहे युवकों को भुसावल जंक्शन पर गाड़ी बदलने के रोमांच से परिचित कराते हैं।

 

सुबह घंटी बजते बैलों के पीछे कुत्तों का जाना नहीं दिखा। और तो और बैल भी बहुत कम बचे हैं। सूरज अपने समय पर निकला और बगैर कोई हलचल किए शाम को अस्त भी हो गया। गांव का चेहरा फिर भी निस्तेज ही बना रहा। शाम को गांव पहले की तरह धुएं में भी नहीं लिपटा और न ही कहीं से तेल मसाले की खुशबू ही आई।

 

एक दिन जब पिता के साथ खेतों की ओर निकला तो भी कुत्तों ने एतराज जताते हुए भौंकना जारी रखा। मुझे याद है कि ये पहले हमारे रिश्तेदारों तक को पहचानते थे। यही नहीं, वे इस पर भी नजर रखते थे कि आसपास के किस गांव का व्यक्ति किसके घर आता है। रात में किसी कुत्ते का भौंकना उस समय बड़ी बात मानी जाती थी। 

 

मुझे कई बार जगाकर पिता ने कहा था, देखो कुत्ते भौंक रहे हैं। हो न हो, कोई चोर-उचक्का जरूर गांव में घुसा है। उनके भौंकने से पूरा गांव एक सूत्र में बंध जाता था, खांस खेखार कर लोग अपनी हाजिरी देने लगते थे।

 

पिताजी ने बताया कि गांव से जाने वाले हरेक व्यक्ति को ये कुत्ते ट्रेन तक छोड़ने जाते हैं। इधर गांव में चोरी भी होने लगी है। पर कुत्ते रात में एक साथ केवल ट्रेन की सीटी सुनाई देने पर ही भौंकते हैं। इसके अलावा रात भर टस से मस नहीं होते।

 

ट्रेन और कुत्तों के बीच संबंध तलाशने में उत्तर आधुनिकता जैसा नवीनतम सिद्धांत भी मेरी कोई मदद नहीं कर सका। न ही बीड़ी का सुट्टा लगा-लगाकर अपनी उम्र से १० वर्ष अधिक दिखने वाले मेरी उम्र के गांव में रह रहे लोग ही कुछ बता पाए। 

 

मुझे फैज की एक नज्म याद आई 

 

"ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते 

ये हर एक की ठोकरें खाने वाले 

ये फाकों से उकता के मर जाने वाले।"

 

मगर गांव में ऐसी न तो नौबत आने वाली है और न ही वहां कुत्ते आवारा और बेकार हैं। उनसे किसी आंदोलन की भी उम्मीद नहीं है कि उनकी सोई हुई दुम हिला दें।

 

विकास और उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने गांव में पांच साल बाद सभी राजनैतिक पार्टियों की जीपें पहुंचती थीं जिनके पीछे पहले ये कुत्ते बहुत दूर तक दौड़ते हुए जाते थे। पिताजी ने बताया कि जीपें चूंकि हर वर्ष अब आने लगी हैं इसलिए उनमें भी अब इन कुत्तों की कोई दिलचस्पी नहीं रही। लेकिन पांच दिनों बाद जब मैं शहर वापस आने लगा तो पिता और बाबा के साथ गांव के सिवान तक मुझे छोड़ने गांव के कुत्ते भी आए। वे चुपचाप चल रहे थे हमारे पीछे। उनके व्यवहार में आई तब्दीली से मैं हैरान था। जब जल्दी वापस आने का वादा लेकर पिताजी और बाबा आंखें पोंछते वापस मुड़ गए तब भी गांव के कुत्ते मेरे आगे-आगे दौड़ते रहे और रेलवे स्टेशन तक आए।

 

सर्वेश्वर की ही कविता के इस टुकड़े ने मुझे उस समय राहत दी 


"दिल्ली

कागज की एक डिबिया

जिसमें नकली हीरे की अंगूठी 

असली दाम के कैशमेमो में लिपटी हुई रखी है।"

 

संतोष हुआ कि यदि कैशमेमो में गलत इंदराज हैं तो भी कम से कम आज भी मेरे गांव में असली हीरे की अंगूठी है ।


(कृष्ण कुमार मिश्र  के  पिछले तीन दशकों में समाज, राजनीति, सिनेमा और साहित्य पर केन्द्रित विचारशील लेखों के संचयन “फ़िर भी” से)